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उप॒ ज्मन्नुप॑ वेत॒सेऽव॑तर न॒दीष्वा। अग्ने॑ पि॒त्तम॒पाम॑सि॒ मण्डू॑कि॒ ताभि॒राग॑हि॒ सेमं नो॑ य॒ज्ञं पा॑व॒कव॑र्णꣳ शि॒वं कृ॑धि ॥६ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

उप॑। ज्मन्। उप॑। वे॒त॒से। अव॑। त॒र॒। न॒दीषु॑। आ। अग्ने॑। पि॒त्तम्। अ॒पाम्। अ॒सि॒। मण्डू॑कि। ताभिः॑। आ। ग॒हि॒। सा। इ॒मम्। नः॒। य॒ज्ञम्। पा॒व॒कव॑र्ण॒मिति॑ पाव॒कऽव॑र्णम्। शि॒वम्। कृ॒धि॒ ॥६ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:17» मन्त्र:6


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब स्त्री-पुरुष आपस में कैसे वर्त्तें, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अग्ने) अग्नि के तुल्य तेजस्विनी विदुषि (मण्डूकि) अच्छे प्रकार अलङ्कारों से शोभित विदुषि स्त्रि ! तू (ज्मन्) पृथिवी पर (नदीषु) नदियों तथा (वेतसे) पदार्थों के विस्तार में (अव, तर) पार हो, जैसे अग्नि (अपाम्) प्राण वा जलों के (पित्तम्) तेज का रूप (असि) है, वैसे तू (ताभिः) उन जल वा प्राणों के साथ (उप, आ, गहि) हमको समीप प्राप्त हो (सा) सो तू (नः) हमारे (इमम्) इस (पावकवर्णम्) अग्नि के तुल्य प्रकाशमान (यज्ञम्) गृहाश्रमरूप यज्ञ को (शिवम्) कल्याणकारी (उप, आ, कृधि) अच्छे प्रकार कर ॥६ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। स्त्री और पुरुष गृहाश्रम में प्रयत्न के साथ सब कार्य्यों को सिद्ध कर शुद्ध आचरण के सहित कल्याण को प्राप्त हों ॥६ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ दम्पती कथं वर्त्तेयातामित्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

(उप) (ज्मन्) ज्मनि भूमौ। अत्र सुपां सुलुग्० [अष्टा०७.१.३९] इति सप्तम्येकवचनस्य लुक्। ज्मेति पृथिवीनामसु पठितम् ॥ (निघं०१.१) (उप) (वेतसे) पदार्थविस्तारे (अव) (तर) (नदीषु) (आ) (अग्ने) वह्निरिव तेजस्विनि विदुषि ! (पित्तम्) तेजः (अपाम्) प्राणानां जलानां वा (असि) अस्ति (मण्डूकि) सुभूषिते (ताभिः) अद्भिः प्राणैर्वा (आ) (गहि) आगच्छ (सा) (इमम्) (नः) अस्माकम् (यज्ञम्) गृहाश्रमाख्यम् (पावकवर्णम्) अग्निवत् प्रकाशमानम् (शिवम्) कल्याणकारकम् (कृधि) कुरु ॥६ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे अग्ने वह्निरिव विदुषि मण्डूकि स्त्रि ! त्वं ज्मन् नदीषु वेतसेऽवतर, यथाऽग्निरपां पित्तमसि, तथा त्वं ताभिरुपागहि, सा त्वं न इमं पावकवर्णं यज्ञं शिवमुपाकृधि ॥६ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। स्त्रीपुरुषौ गृहाश्रमे प्रयत्नेन सर्वाणि कार्याणि संसाध्य शुद्धाचरणेन कल्याणं प्राप्नुयाताम् ॥६ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. स्त्री-पुरुषांनी गृहस्थाश्रमातील सर्व कामे प्रयत्नपूर्वक पूर्ण करावीत व शुद्ध आचरणाने वागावे आणि आपले कल्याण करून घ्यावे.